Monday, January 14, 2013

खुद को पढ़ता हूँ, छोड़ देता हूँ,
एक वर्क रोज़ मोड़ देता हूँ।

इस कदर ज़ख्म हैं निगाहों में,
रोज़ इक आईना तोड़ देता हूँ।

मैं पुजारी बरसते फूलों का,
छू के शाखों को छोड़ देता हूँ।

कासा-ए-शब में खून सूरज का,
कतरा कतरा निचोड़ देता हूँ।

कांपते होंठ भीगती पलकें,
बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ।

रेत के घर बना बना के 'फ़राज़',
जाने क्यों खुद ही तोड़ देता हूँ।
-ताहिर फ़राज़ 


http://www.youtube.com/watch?v=wRwuqjeMDrs

 

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