Thursday, November 13, 2014

हमने सब शेर में सँवारे थे

हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे

(सुख़न = बात-चीत, संवाद, वचन)

रंग-ओ-ख़ुश्बू के, हुस्न-ओ-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे

(इस्तिआरे = रूपक, काव्य में अमूर्त का मानवीकरण)

तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

(क़ौल-ओ-क़रार = वचन और प्रतिज्ञा)

जब वो लाल-ओ-गुहर हिसाब किए
जो तिरे ग़म ने दिल पे वारे थे

(लाल-ओ-गुहर = हीरे-मोती)

मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्त-ए-फ़लक में तारे थे

(तश्त-ए-फ़लक = आसमान की तश्तरी)

उम्र-ए-जाविदाँ की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे

(उम्र-ए-जाविदाँ = लम्बी उम्र, अमरता)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़



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