Sunday, December 16, 2012

होठों पे मोहब्बत के फ़साने नही आते,
साहिल पे समन्दर के खज़ाने नही आते।

पलकें भी चमक उठती हैं सोते में हमारी,
आंखों को अभी ख़्वाब छुपाने नही आते।

दिल उजड़ी हुई एक सराए की तरह है,
अब लोग यहाँ रात बिताने नही आते।

उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में,
फिर लौट के बचपन के ज़माने नही आते।

क्या सोच कर आये हो मोहब्बत की गली में,
जब नाज़ हसीनों के उठाने नहीं आते।

यारों नए मौसम ने ये एहसान किए हैं,
अब याद संजोये दर्द पुराने नही आते।

इस शहर के बादल तेरी जुल्फों की तरह हैं,
ये आग लगाते हैं बुझाने नही आते।

अहबाब भी गैरों की अदा सीख गए हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नही आते।

(अहबाब = दोस्त, मित्र)

-बशीर बद्र

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