Saturday, March 9, 2013

हरेक लम्हा उजालों के दिल में गड़ता हुआ,
मैं इक चराग़ हूँ सूरज की ओर बढ़ता हुआ।

मेरी जड़ों में मठा डालने की भूल न कर,
कि सख़्त और भी होता है पेड़ झड़ता हुआ।

है सोच-सोच का अंतर कि फिर झुका हूँ मैं,
वो मेरे सामने आया है फिर अकड़ता हुआ।

मुझे ये डर है, रसातल न उसको ले जाए,
दिमाग उसका अहं के गगन पे चढ़ता हुआ।

हमारे सामने रिश्तों के ख़्वाब बिखरे हैं,
बहुत करीब से देखा है घर उजड़ता हुआ।
-आलोक श्रीवास्तव

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