Thursday, May 30, 2013

पीर जब बेहिसाब होती है
शायरी लाजवाब होती है

इक न इक दिन तो ऐसा आता है
शक्ल हर बेनकाब होती है

चांदनी जिसको हम समझते हैं
गर्मी-ए-आफ़ताब होती है

शायरी तो करम है मालिक का
शायरी खुद किताब होती है
-विजय वाते

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