Sunday, June 9, 2013

ज़िन्दगी तुझ को जिया है कोई अफ़सोस नहीं
ज़हर ख़ुद मैनें पिया है कोई अफ़सोस नहीं

मैनें मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़सोस नहीं

मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू
दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़सोस नहीं

अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश 'फ़ाकिर'
अब कफ़न ओढ़ लिया है कोई अफ़सोस नहीं

(संग = पत्थर)

-सुदर्शन फ़ाकिर






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