Saturday, July 6, 2013

आब-ए-रवाँ

आज मैने उन सारे तारों की फेहरिस्त बना ली है
जिन्हें जोड़ कर तेरा नाम लिखा करते थे

हर दफे के चाँद में तुमसे यूँ मिलना,
और पलकों में तुम्हे समेट के सो जाना

वो छत पे पानी का छांटना
और सौंधी खुश्बू का तेरे आगोश सा लिपट जाना

आज भी याद आता है
गुज़रा हुआ आशिक़ी का ज़माना

अब तू इतने पास है
फिर भी हिज्र का मौसम क्यूँ है

(हिज्र = बिछोहजुदाई)

माह-ओ-साल तू सामने है
फिर भी तेरी याद क्यूँ है

दिल कहीं सख़्त दरख़्त ना बन जाए
चल कहीं आब-ए-रवाँ ढूंढते हैं

[(दरख़्त = वृक्ष, पेड़), (आब-ए-रवाँ = बहता हुआ पानी)]

-रूपा भाटी

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