Sunday, October 6, 2013

क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ़्ता-रफ़्ता पत्थर में ढल रहा हूँ

(रफ़्ता-रफ़्ता = धीरे-धीरे)

चारों तरफ हैं शोले, हमसाये जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ

मेरे धुएं से मेरी, हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ

आँखों पे छा गया है जादू ही कोई शायद
पलकें झपक रहा हूँ , मंज़र बदल रहा हूँ

तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ , चेहरा बदल रहा हूँ

इन पत्थरों पे चलना आ जायेगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ , लेकिन संभल रहा हूँ

काँटों पे जब चलूँगा , रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश है,बच बच के चल रहा हूँ

(रविश = बाग़ की क्यारियों के बीच का छोटा मार्ग, गति, रंग-ढंग)

चश्मे की तरह 'आलम' अशआर फूटते हैं
कोहे-गिरां की सूरत , मैं भी उबल रहा हूँ

[(चश्मा = पानी का सोता), (कोहे-गिरां = वजनी पहाड़)

-आलम खुर्शीद

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