चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वज़ीर
चलूँ आख़िरी चाल के बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग़ झर गया
तिनके बिखरे हुए बटोरूँ या नव सॄष्टि सजाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं
दो दिन मिले उधार में
घाटे के व्यापार में
क्षण क्षण का हिसाब जोड़ूँ
या पूँजी शेष लुटाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं
-अटल विहारी वाजपेयी
प्यादे से पिट गया वज़ीर
चलूँ आख़िरी चाल के बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग़ झर गया
तिनके बिखरे हुए बटोरूँ या नव सॄष्टि सजाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं
दो दिन मिले उधार में
घाटे के व्यापार में
क्षण क्षण का हिसाब जोड़ूँ
या पूँजी शेष लुटाऊँ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं
-अटल विहारी वाजपेयी
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