Thursday, July 17, 2014

तन-ए-तन्हा मुकाबिल हो रहा हूँ मैं हजारों से
हसीनों से, रकीबों से, ग़मों से, ग़म-गुसारों से

(मुकाबिल = सम्मुख), (ग़म-गुसार = दूसरों का दुःख दूर करने वाला)

उन्हें मैं छीन कर लाया हूँ कितने दावे-दारों से
शफ़क़ से, चाँदनी रातों से, फूलों से, सितारों से

(शफ़क़ = प्रातः काल अथवा संध्या के समय की आकाश की लाली)

सुने कोई तो अब भी रौशनी आवाज़ देती है
पहाड़ों से, गुफाओं, से बयाबानों, से ग़ारों से

(ग़ार = गहरा गड्ढा, गुफा, कंदरा)

हमारे दाग-ए-दिल-जख़्म-ए-जिगर कुछ मिलते-जुलते हैं
गुलों से, गुलरूखों से, महवशों से, महपरों से

(गुलरूख = जिसका चेहरा गुलाब की तरह हो, बहुत सुन्दर), (महवश = चंद्रमा के समान सुंदर मुख वाला )

कभी होता नहीं महसूस वो यूँ कत्ल करते है
निगाहों से, कनखियों से, अदाओं से, इशारों से

हमेशा एक प्यासी रूह की आवाज आती है
कुओं से, पनघटों से, नद्दियों से, आबशारों से

(आबशारों = पानी का झरना, जल प्रपात)

न आए पर न आए वो उन्हें क्या क्या खबर भेजी
लिफाफों से, ख़तों से, दुख भरे पर्चो से, तारों से

ज़माने में कभी भी किस्मतें बदला नहीं करती
उम्मीदों से, भरोसों से, दिलासों से, सहारों से

वो दिन भी हाए क्या दिन थे जब अपना भी तअल्लुक था
दशहरे से, दीवाली से, बंसतों से, बहारों से

कभी पत्थर के दिल ऐ ‘कैफ’ पिघले हैं न पिघलेंगे
मुनाजातों से, फरियादों से, चीखों से, पुकारों से

(मुनाजात = ईश्वर-प्रार्थना)

-कैफ़ भोपाली

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