Thursday, October 23, 2014

मौज़ू-ए-सुखन

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी, चश्म-ए-महताब से रात
और मुश्ताक निगाहों की सुनी जायेगी,
और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हाथ

(गुल हुई जाती है = बुझ रही है), (अफ़सुर्दा = उदास), (चश्म-ए-महताब = चन्द्रमा की आँख),
(मुश्ताक = उत्सुक, अभिलाषी), (मस = छूना, स्पर्श)


उनका आँचल है कि रुख़सार के पैराहन हैं
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छांवों में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

(रुख़सार = कपोल, गाल), (पैराहन = लिबास), (मौहूम = भ्रामक, कल्पित), (आवेज़ा = कान का झुमका)


आज फिर हुस्न-ए-दिलारा की वही धज होगी
वो ही ख़्वाबिदा सी आँखें, वो ही काजल की लकीर
रंग-ए-रुख़सार पे हल्का-सा वो गाज़े का गुबार
संदली हाथ पे धुंधली-सी हिना की तहरीर

(हुस्न-ए-दिलारा = मनमोहक सौंदर्य), (ख़्वाबिदा = स्वप्निल), (रंग-ए-रुख़सार = गालों का रंग), (गाज़ा = मुँह पर मलने वाला सुगन्धित रोगन), (संदली = चन्दन जैसा), (हिना = मेंहदी), (तहरीर = लेख, लिखावट)


अपने अफ़कार की अश'आर की दुनिया है यही
जान-ए-मज़मूं है यही, शाहिद-ए-माना है यही

(अफ़कार = फ़िक्र का बहुवचन, चिंताएँ),  (अश'आर = शेर का बहुवचन), (जान-ए-मज़मूं = विषय की जान), (शाहिद-ए-माना = अर्थों की सुंदरता)


आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साए के तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद पे क्या गुज़री है

(सुर्ख़-ओ-सियह = सफ़ेद और काली), (ज़ीस्त = जीवन), (सफ़आराई = मोर्चाबंदी), (अजदाद = पुरखे)


इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
यह हसीं खेत फटा पड़ता है जोबन जिनका
किस लिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है

(फ़रावाँ - प्रचुर, बहुसंख्यक),  (मख़लूक़ = जनता), (फ़क़त = सिर्फ़)


यह हर इक सम्त, पुर-असरार कड़ी दीवारें
जल बुझे जिनमें हज़ारों की जवानी के चराग़
यह हर इक गाम पे उन ख़्वाबों की मक़्तल गाहें
जिनके परतौ से चराग़ाँ हैं हज़ारों के दिमाग़

(सम्त = ओर), (पुर-असरार = रहस्यपूर्ण), (गाम = पग), (मक़्तल गाहें = क़त्लगाहें, वध स्थल), (परतौ = प्रतिबिम्ब, अक्स), (चराग़ाँ = दीप्तिमान)


यह भी हैं, ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से ख़ुलते हुए होंठ
हाय उस जिस्म के कमबख़्त, दिलावेज़ ख़ुतूत !
आप ही कहिए, कहीं ऐसे भी अफ़्सूँ होंगे

(मज़मूँ = विषय), (दिलावेज़ ख़ुतूत = मनोहर/ हृदयाकर्षक रेखाएं (बनावट)), (अफ़्सूँ = जादू)



अपना मौज़ू-ए-सुखन इन के सिवा और नही
तब-ए-शायर का वतन इनके सिवा और नही

 (मौज़ू-ए-सुखन = काव्य का विषय), (तब-ए-शायर = शायर की प्रकृति)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


आबिदा परवीन/ Abida Parveen

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