Saturday, November 8, 2014

आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर
 
आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ साड़ी की दूकानों पर

(शाने = कंधे)

बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुरवाई भी
जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर

शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर

सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर

उस का क्या मन-भेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ
बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर

और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती
जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर

शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए
उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उन्वानों पर

(मंसूब = सम्बंधित), (उन्वान = शीर्षक)

यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं
कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएँ इन रूमानों पर

-जाँनिसार अख़्तर

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