Thursday, February 26, 2015

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती है
रौशनी ऐसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है

खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है

(अनासिर = पंचभूत, पाँच तत्व - अग्नि, जल, वायु, धरती और आकाश)

ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अब कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है

(ज़ब्त-ए-ग़म = कष्ट और दुःख प्रकट न होने देना)

-कृष्ण बिहारी 'नूर'

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