Saturday, May 23, 2015

इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ

इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ
हर साँस को मैं, बनकर सुक़रात, बरतता हूँ

खुलते भी भला कैसे आँसू मेरे औरों पर
हँस-हँस के जो मैं अपने हालात बरतता हूँ

कंजूस कोई जैसे गिनता रहे सिक्कों को
ऐसे ही मैं यादों के लम्हात बरतता हूँ

मिलते रहे दुनिया से जो ज़ख्म मेरे दिल को
उनको भी समझकर मैं सौग़ात, बरतता हूँ

कुछ और बरतना तो आता नहीं शे'रों में
सदमात बरतता था, सदमात बरतता हूँ

सब लोग न जाने क्यों हँसते चले जाते हैं
गुफ़्तार में जब अपनी जज़्बात बरतता हूँ

(गुफ़्तार = बात-चीत, बोल चाल)

उस रात महक जाते हैं चाँद-सितारे भी
मैं नींद में ख़्वाबों को जिस रात बरतता हूँ

बस के हैं कहाँ मेरी, ये फ़िक्र ये फ़न यारब !
ये सब तो मैं तेरी ही ख़ैरात बरतता हूँ

दम साध के पढ़ते हैं सब ताज़ा ग़ज़ल मेरी
किस लहजे में अबके मैं क्या बात बरतता हूँ

-राजेश रेड्डी

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