थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं
वो ख़्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं
उम्मीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं
दरीचे शम्मा जलाते-बुझाते रहते हैं
(दरीचे = खिड़कियां, झरोखे)
न जाने किस का हमें इन्तिज़ार रहता है
कि बाम-ओ-दर को हमेशा सजाते रहते हैं
(बाम-ओ-दर = छत और दरवाज़ा)
किसी को खोजते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख)
वो नक़्श-ए-ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं
(नक़्श-ए-ख़्वाब = स्वप्न की तस्वीर), (मुकम्मल = सम्पूर्ण, पूरा)
उसी का अक्स हर इक रंग में झळकता है
वो एक दर्द जिसे हम छुपाते रहते हैं
(अक्स = प्रतिबिम्ब, छाया, चित्र)
हमें ख़बर है दोबारा कभी न आएंगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं
ये खेल सिर्फ़ तुम्हीं खेलते नहीं 'आलम'
सभी हवा में लकीरें बनाते रहते हैं
- आलम खुर्शीद
वो ख़्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं
उम्मीदें जागती रहती हैं, सोती रहती हैं
दरीचे शम्मा जलाते-बुझाते रहते हैं
(दरीचे = खिड़कियां, झरोखे)
न जाने किस का हमें इन्तिज़ार रहता है
कि बाम-ओ-दर को हमेशा सजाते रहते हैं
(बाम-ओ-दर = छत और दरवाज़ा)
किसी को खोजते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख)
वो नक़्श-ए-ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं
(नक़्श-ए-ख़्वाब = स्वप्न की तस्वीर), (मुकम्मल = सम्पूर्ण, पूरा)
उसी का अक्स हर इक रंग में झळकता है
वो एक दर्द जिसे हम छुपाते रहते हैं
(अक्स = प्रतिबिम्ब, छाया, चित्र)
हमें ख़बर है दोबारा कभी न आएंगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं
ये खेल सिर्फ़ तुम्हीं खेलते नहीं 'आलम'
सभी हवा में लकीरें बनाते रहते हैं
- आलम खुर्शीद
No comments:
Post a Comment