बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी
(माइल = आकर्षित, आसक्त)
अक्स-ए-रुख़सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मह-ए-कामिल = चौदहवीं का चाँद)
अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी
पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ
आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो न थी
(पा-ए-कूबाँ = ), (ज़िंदाँ = कारागृह, जेल), (आवाज़-ए-सलासिल = ज़ंजीरों की आवाज़)
निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल ऐ दिल
वो तेरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी
(तग़ाफ़ुल = बेरुख़ी, उपेक्षा), (ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर)
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
(चश्म-ए-क़ातिल = क़ातिल की आँख, यहाँ तात्पर्य प्रेमिका की आँखों से है)
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
(सबब = कारण), (ख़ू = स्वाभाव, प्रकृति, आदत), (हूर-ए-शमाइल = परियों जैसी आदतें)
-बहादुर शाह ज़फ़र
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
के तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी
(माइल = आकर्षित, आसक्त)
अक्स-ए-रुख़सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
(ताब = सहनशक्ति, आभा, बल), (मह-ए-कामिल = चौदहवीं का चाँद)
अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी
पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ
आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो न थी
(पा-ए-कूबाँ = ), (ज़िंदाँ = कारागृह, जेल), (आवाज़-ए-सलासिल = ज़ंजीरों की आवाज़)
निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल ऐ दिल
वो तेरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी
(तग़ाफ़ुल = बेरुख़ी, उपेक्षा), (ग़ाफ़िल = बेसुध, बेख़बर)
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
(चश्म-ए-क़ातिल = क़ातिल की आँख, यहाँ तात्पर्य प्रेमिका की आँखों से है)
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
(सबब = कारण), (ख़ू = स्वाभाव, प्रकृति, आदत), (हूर-ए-शमाइल = परियों जैसी आदतें)
-बहादुर शाह ज़फ़र
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