वो आँगन वो गलियां दरख्तों के साये
न जाने अभी तक क्यों हमको बुलायें
न बाबा न अम्मा न वो संगी साथी
बचा क्या है अब जिसकी यादें रुलायें
बचपन की चोटें और अम्मा के फाहे
हुआ दर्द जब भी बहुत याद आये
वो आँखों से डरना दबे पांव चलना
जवानी में जब भी कदम लड़खडा़ये
बहुत याद आते है वो गुज़रे ज़माने
बिना बात जब हमने आंसू बहाये
न आएगा फिर वो मौसम कभी भी
यही दर्द तो अब है हमको सताये
शहर भी वही है वही सारी राहें
मगर हमको अपने कहीं दिख न पाये
-स्मृति रॉय
न जाने अभी तक क्यों हमको बुलायें
न बाबा न अम्मा न वो संगी साथी
बचा क्या है अब जिसकी यादें रुलायें
बचपन की चोटें और अम्मा के फाहे
हुआ दर्द जब भी बहुत याद आये
वो आँखों से डरना दबे पांव चलना
जवानी में जब भी कदम लड़खडा़ये
बहुत याद आते है वो गुज़रे ज़माने
बिना बात जब हमने आंसू बहाये
न आएगा फिर वो मौसम कभी भी
यही दर्द तो अब है हमको सताये
शहर भी वही है वही सारी राहें
मगर हमको अपने कहीं दिख न पाये
-स्मृति रॉय
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