Friday, April 7, 2017

सज़ा दो अगरचे गुनहगार हूँ मैं

सज़ा दो अगरचे गुनहगार हूँ मैं
यूं सर भी कटाने को तैयार हूँ मैं।

ये दुनिया समझती है पत्थर मुझे क्यूं
ज़रा गौर कर प्यार ही प्यार हूँ मैं।

गुज़ारा है टूटे खिलौनों में बचपन
यूं बच्चों का अपने गुनहगार हूँ मैं।

सुलह चाहता हूँ सभी से यहां मैं
गिरा दो जो लगता है दीवार हूँ मैं।

बदलता नहीं वक़्त के साथ हरगिज़
चलो आज़मा लो वही यार हूँ मैं।

हुनर कश्तियों का नहीं है ये माना
भरोसा तो कर लो के पतवार हूँ मैं।

रहा मुंतज़िर मैं गुलों का हमेशा
समझते हो जो खार तो खार हूँ मैं।

(मुंतज़िर = प्रतीक्षारत), (गुल = फूल), (खार = कांटे)

- विकास वाहिद

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