सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।
चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो
धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।
जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।
मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।
काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,
शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।
-मानोशी
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।
चाह तारों की कहाँ
जब गगन ही आँचल बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए
पथिक को फिर क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं,
कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय में सागर समाया, हर लहर जीवन सुधा हो
धूप में चमके मगर
है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना ।।
जल रही मद्धम कहीं अब भी
पुरानी ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर
गंध सोंधी सी प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस क्षण
कई तरुवर बन तने थे,
एक दिशा विहीन सरिता रुक गयी निर्बाध गति की।
मन कहीं भागे नहीं
फिर से किसी हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना ।।
काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के
उत्तर खोजता,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात
अब क्या सोचता,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को,
समझ पाने के प्रयासों को
भला क्यों कोसता,
शांत हो चित धीर स्थिर मन,
हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना ।।
-मानोशी
काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के, उत्तर खोजता. .
ReplyDeleteवाह क्या बात है बहुत खूब लिखा है।