बात बिगड़ी हुई बनाने में
रो पड़े हम उसे हंसाने में।
ज़िन्दगी जी कहाँ किसी ने भी
लोग मसरूफ़ थे ज़माने में।
तेरी तस्वीर ही नहीं थी बस
और सब था शराबख़ाने में।
तुम को ग़म है या दर्द है कोई
क्या है तकलीफ़ मुस्कुराने में।
ये तअल्लुक़ भी कांच जैसे हैं
टूट जाते हैं बस निभाने में।
शख़्स वो जो क़रीब था मेरे
हो गया दूर आज़माने में।
सीढ़ियां तो मिली नहीं हमको
सांप ही थे हरेक ख़ाने में।
बेच आए हैं वो अना शायद
अपनी दस्तार को बचाने में।
(अना = आत्मसम्मान), (दस्तार = पगड़ी)
उसको तो चार दिन लगे थे बस
हमको अरसा लगा भुलाने में।
अब तो "वाहिद" गुरेज़ है उसको
हमको आवाज़ भी लगाने में।
(गुरेज़ = उपेक्षा, बचना)
- विकास "वाहिद"
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