ऐसा अपनापन भी क्या जो अजनबी महसूस हो,
साथ रहकर भी मुझे तेरी कमी महसूस हो।
आग बस्ती में लगाकर बोलते हैं, यूँ जलो,
दूर से देखे कोई तो रोशनी महसूस हो।
भीड़ के लोगों सुनो, ये हुक्म है दरबार का,
भूख से ऐसे गिरो कि बन्दगी महसूस हो।
नाम था उसका बगावत कातिलों ने इसलिये,
क़त्ल भी ऐसे किया कि खुदकुशी महसूस हो।
शाख़ पर बैठे परिन्दे कह रहे थे कान में,
क्या रिहाई है कि हरदम बेबसी महसूस हो।
फूल मत दे मुझको, लेकिन बोल तो फूलों से बोल,
जिनको सुनकर तितलियाँ-सी ताज़गी महसूस हो।
आप उस ख़ाली जगह पे नाम लिख़ देना मेरा,
जब हरइक राय में किसी राय की कमी महसूस हो।
शर्त मुर्दों से लगाकर काट दी आधी सदी,
अब तो करवट लो कि जिससे ज़िंदगी महसूस हो।
हो अगर जज़्बे अमल की बेकली इंसान में,
सर पे तपती दोपहर भी चाँदनी महसूस हो।
सिर्फ़ इतने पर बदल सकता है दुनिया का निज़ाम,
कोई रोय, आँख में सबकी नमी महसूस हो।
दे रहा हूँ आपको अपना पता मैं इसलिए,
याद कर लेना कभी, मेरी कमी महसूस हो।
-माणिक वर्मा
साथ रहकर भी मुझे तेरी कमी महसूस हो।
आग बस्ती में लगाकर बोलते हैं, यूँ जलो,
दूर से देखे कोई तो रोशनी महसूस हो।
भीड़ के लोगों सुनो, ये हुक्म है दरबार का,
भूख से ऐसे गिरो कि बन्दगी महसूस हो।
नाम था उसका बगावत कातिलों ने इसलिये,
क़त्ल भी ऐसे किया कि खुदकुशी महसूस हो।
शाख़ पर बैठे परिन्दे कह रहे थे कान में,
क्या रिहाई है कि हरदम बेबसी महसूस हो।
फूल मत दे मुझको, लेकिन बोल तो फूलों से बोल,
जिनको सुनकर तितलियाँ-सी ताज़गी महसूस हो।
आप उस ख़ाली जगह पे नाम लिख़ देना मेरा,
जब हरइक राय में किसी राय की कमी महसूस हो।
शर्त मुर्दों से लगाकर काट दी आधी सदी,
अब तो करवट लो कि जिससे ज़िंदगी महसूस हो।
हो अगर जज़्बे अमल की बेकली इंसान में,
सर पे तपती दोपहर भी चाँदनी महसूस हो।
सिर्फ़ इतने पर बदल सकता है दुनिया का निज़ाम,
कोई रोय, आँख में सबकी नमी महसूस हो।
दे रहा हूँ आपको अपना पता मैं इसलिए,
याद कर लेना कभी, मेरी कमी महसूस हो।
-माणिक वर्मा
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