Sunday, February 24, 2013

वो दौर दिखा जिसमें इन्सान की ख़ूशबू हो,
इन्सान की आखों में ईमान की ख़ूशबू हो ।

पाकीजा अज़ानों में मीरा के भजन गूंजें,
नौ दिन के उपासों  में रमजान की ख़ूशबू हो ।

मैं उसमें नज़र आऊं, वो मुझमें नज़र आये,
इस जान की ख़ूशबू में उस जान की ख़ूशबू हो ।

मस्जिद की फ़िज़ाओं में महकार हो चन्दन की,
मंदिर की फ़िज़ाओं में लोबान की ख़ूशबू हो ।

हम लोग भी फिर ऐसे, बेनाम कहाँ होंगे,
हममें भी अगर तेरी पहचान की ख़ूशबू हो ।
-आलोक श्रीवास्तव

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