Tuesday, April 30, 2013

हम नहीं मानते कमतर है मुक़द्दर अपना,
आप के हाल से हर हाल है बेहतर अपना।

वक़्त को बज़्म के आदाब सिखा दो यारों!
वक़्त से बात करो जाम उठा कर अपना।

अपने किरदार की औक़ात के आईने में,
अक्स हम देख लिया करते हैं अक्सर अपना।

हम को पहचान लिया अहले-करम ने आखिर,
हम तो निकले थे नया भेस बदल कर अपना।

इस में तरमीम की अब कोई नहीं गुंजाइश,
ऐसे अल्फ़ाज़ से लिखा है मुक़द्दर अपना।

(तरमीम = संशोधन, सुधार), (अल्फ़ाज़ = लफ़्ज़ का बहुवचन, शब्द-समूह)

दर्द की आग  से माज़ी के जले सीने पर,
रख दिया हाल की तहज़ीब ने पत्थर अपना।

(माज़ी = भूतकाल, बीता हुआ समय)

हम ने माना है इलाजे-ग़मे-दुनिया इस को,
आप कहते हैं कि हम तोड़ दें साग़र अपना?
-कँवल ज़ियाई

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