Sunday, May 26, 2013

निगल गए सब की सब समुंदर, ज़मीं बची अब कहीं नहीं है
बचाते हम अपनी जान जिसमे वो कश्ती भी अब कहीं नहीं है

बहुत दिनो बाद पाई फ़ुर्सत तो मैने ख़ुद को पलटके देखा
मगर मैं पहचानता था जिसको वो आदमी अब कहीं नहीं है

गुज़र गया वक़्त दिल पे लिखकर न जाने कैसी अजीब बातें
वरक़ पलटता हूँ मै जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है

(वरक़ = किताब के पन्ने, पृष्ठ)

वो आग बरसी है दोपहर मे कि सारे मन्ज़र झुलस गए हैं
यहाँ सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है

तुम अपने क़स्बो में जाके देखो वहाँ भी अब शहर ही बसे हैं
कि ढूँढते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है
-जावेद अख़्तर

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