Saturday, May 4, 2013

सरबजीत को समर्पित

॥ एक परिंदा ॥

सरहद के उस पार उड़ा था
एक परिंदा
भूल गया था !

भूल गया था !
जितने हैं सय्याद वहां पर
उतने तो दुनिया में नहीं हैं !
जाल बिछाए
घात लगाए
बैठे हैं चालाक़ शिकारी
भूल गया था !

क़ैद किया सय्याद ने उसको
जिस्म खरौंचा
पर क़तरे
और
ख़ून बहाया

बरसों-बरस रहा पिंजरे में
बेचारा मासूम परिंदा !

आज हुआ आज़ाद क़ैद से !
लेकिन ये क्या ?
फिर से पीठ हुई है ज़ख़्मी
फिर से एक छुरा निकला है ?
आलोक श्रीवास्तव

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