Monday, May 20, 2013

एक मोहरे का सफ़र

जब वो कम उम्र ही था
उसने ये जान लिया था कि अगर जीना है
बड़ी चालाकी से जीना होगा
आँख की आख़िरी हद तक है बिसाते-हस्ती       (बिसाते-हस्ती = जीवन के शतरंज की बिसात)
और वो मामूली सा एक मोहरा है
एक इक ख़ाना बहूत सोच के चलना होगा
बाज़ी आसान नहीं थी उसकी
दूर तक चारों तरफ़ फैले थे
मोहरे
जल्लाद
निहायत सफ़्फ़ाक       (सफ़्फ़ाक = बेदर्द)
सख़्त बेरहम
बहुत ही चालाक
अपने क़ब्ज़े में लिए
पूरी बिसात                 (बिसात = शतरंज)
उसके हिस्से में फ़क़त मात लिए        (फ़क़त = सिर्फ, केवल)
वो जिधर जाता
उसे मिलता था
हर नया ख़ाना नई घात लिए
वो मगर बचता रहा
चलता रहा
एक घर
दूसरा घर
तीसरा घर
पास आया कभी औरों के
कभी दूर हुआ
वो मगर बचता रहा
चलता रहा
गो कि मामूली सा मोहरा था मगर जीत गया      (गो = यद्यपि)
यूँ वो इक रोज़ बड़ा मोहरा बना
अब वो महफ़ूज़ है इक ख़ाने में            (महफ़ूज़ = सुरक्षित)
इतना महफ़ूज़ कि दुशमन तो अलग
दोस्त भी पास नहीं आ सकते

उसके इक हाथ में है जीत उसकी
दुसरे हाथ में तनहाई है।

-जावेद अख़्तर


No comments:

Post a Comment