Sunday, July 21, 2013

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

(बशर = इंसान, आदमी)

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

(तेग़ = तलवार)

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले, धुआँ नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
मुझे ख़ुद अपने क़दम का निशाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता

-कैफ़ी आज़मी

[मास्को, सितंबर 1974]

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