Friday, November 1, 2013

यूँ तो बरसों न पिलाऊँ, न पीऊँ ऐ ज़ाहिद
तौबा करते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-दाग़

(ज़ाहिद = संयमी, विरक्त)


तौबा की जान को, बिजली है, चमक बिजली की
बदली आते ही बदल जाती है नीयत मेरी
-अमीर मीनाई


ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
-मिर्ज़ा ग़ालिब

(रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब = जिस दिन बादल निकलते हैं और जिस दिन चाँदनी रात होती है)

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