Wednesday, December 18, 2013

हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं

हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं

पीछे छूटे साथी मुझको याद आ जाते हैं
वरना दौड़ में सबसे आगे हो सकता हूँ मैं

कब समझेंगे जिनकी ख़ातिर फूल बिछाता हूँ
इन रस्तों पर कांटे भी तो बो सकता हूँ मैं

इक छोटा-सा बच्चा मुझ में अब तक ज़िंदा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं

सन्नाटे में दहशत हर पल गूँजा करती है
इस जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं

सोच-समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वरना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं

-आलम खुर्शीद


https://www.youtube.com/watch?v=NRn7ywKNohw




 

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