ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं
पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं
(फ़र्ज़ = कल्पना)
हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं
[(आन = क्षण, पल ), (अक़ीद = ढृढ़,मजबूत)]
ऐ चश्म-ए-यार! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं
(चश्म-ए-यार = प्रेमिका की आँखें)
ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं
[(मेहर-ओ-माह = सूरज और चन्द्रमा), (अर्ज़-ओ-समा = पृथ्वी और आकाश), (कायनात = सृष्टि, जगत)]
इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा!
लोगों ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं
दिल्ली! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं
(कूचों = गलियों)
-जाँ निसार अख़्तर
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं
पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं
(फ़र्ज़ = कल्पना)
हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं
[(आन = क्षण, पल ), (अक़ीद = ढृढ़,मजबूत)]
ऐ चश्म-ए-यार! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं
(चश्म-ए-यार = प्रेमिका की आँखें)
ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं
[(मेहर-ओ-माह = सूरज और चन्द्रमा), (अर्ज़-ओ-समा = पृथ्वी और आकाश), (कायनात = सृष्टि, जगत)]
इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा!
लोगों ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं
दिल्ली! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं
(कूचों = गलियों)
-जाँ निसार अख़्तर
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