Tuesday, August 19, 2014

ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं

पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं

(फ़र्ज़ = कल्पना)

हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं

[(आन = क्षण, पल ), (अक़ीद = ढृढ़,मजबूत)]

ऐ चश्म-ए-यार! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं

(चश्म-ए-यार = प्रेमिका की आँखें)

ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं

[(मेहर-ओ-माह = सूरज और चन्द्रमा), (अर्ज़-ओ-समा = पृथ्वी और आकाश), (कायनात = सृष्टि, जगत)]

इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा!
लोगों ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं

दिल्ली! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं

(कूचों = गलियों)

-जाँ निसार अख़्तर

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