Saturday, August 16, 2014

बागवाँ को कुछ जैसे तितलियाँ समझती हैं
मायके को भी वैसे बेटियाँ समझती हैं |

चीख गोलियों की हो, शोर हो धमाकों का
हेर-फेर मौसम का खिड़कियाँ समझती हैं |

सायबान है, घर है और है जहाँभर भी
कीमत उन दरख्तों की पंछियाँ समझती हैं |

लोग सब अचंभित हैं देखकर धुँआ काला
रंग स्वेद का ऊँची चिमनियाँ समझती हैं |

जिस्म बेधकर कुन्दन टाँगना सजावट को
दर्द ऐसी रस्मों का बच्चियाँ समझती हैं |

रंग-रूप पाने को, ज़ायका बनाने को
किस डगर से गुजरी हैं रोटियाँ समझती हैं |

वक़्त की कलाकारी आदमी के चेहरे पर
कैनवास पर बिखरी झुर्रियाँ समझती हैं |

आग देने वालों को इल्म भी नहीं होता
ज़िस्म की जलन जलती लकड़ियाँ समझती हैं |

-आशीष नैथानी 'सलिल'

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