Saturday, August 16, 2014

पहाड़ों पर सुनामी थी या था तूफ़ान पानी में
बहे बाज़ार घर-खलिहान और इन्सान पानी में।

बड़ा वीभत्स था मंज़र जो देखा रूप गंगा का
किसी तिनके की माफ़िक बह रहा सामान पानी में।

बहुत नाज़ुक है इन्सानी बदन इसका भरोसा क्या
भरोसा किसपे हो जब डूबते भगवान पानी में।

इधर कुछ तैरती लाशें उधर कुछ टूटते सपने
न जाने लौटकर आएगी कैसे जान पानी में।

बहुत मुश्किल है अपनी आँख के पानी को समझाना
अचानक कैसे हो जाती दफ़न मुस्कान पानी में।

-आशीष नैथानी 'सलिल'

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