Saturday, August 30, 2014

अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जिस्म से आग निकलती है, क़बा गीली है

(क़बा = एक प्रकार का लम्बा ढीला पहनावा, चोगा)

सोचता हूँ के अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी काँच के हैं, राह भी पथरीली है

शिद्दत-ए-कर्ब में तो हँसना कर्ब है मेरा
हाथ ही सख़्त हैं ज़ंजीर कहाँ ढीली है

(शिद्दत-ए-कर्ब = दुःख/ बेचैनी की तीव्रता), (कर्ब = व्याकुलता, बेचैनी, पीड़ा, यातना, दुःख)

गर्द आँखों में सही दाग़ तो चेहरे पे नहीं
लफ़्ज़ धुँधले हैं मगर फ़िक्र तो चमकीली है

घोल देता है सम'अत में वो मीठा लहजा
किसको मालूम के ये क़िंद भी ज़हरीली है

(सम'अत = सुनना, सुनने की क्षमता),

पहले रग-रग से मेरी ख़ून निचोड़ा उसने
अब ये कहता है के रंगत ही मेरी पीली है

(रग = नस, नाड़ी)

मुझको बे-रंग ही न करदे कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है, हवा सुर्ख़, फ़िज़ा नीली है

(सब्ज़ = हरियाली)

मेरी परवाज़ किसी को नहीं भाती तो न भाये
क्या करूँ ज़हन 'मुज़फ़्फ़र' मेरा जिबरीली है

(जिबरीली = जिब्रील के जैसा -  जिब्रील एक फ़रिश्ते थे जो पैगम्बरों के पास ईश्वर का सन्देश पहुँचाया करते थे)

-मुज़फ़्फ़र वारसी

1 comment:

  1. My all time favorite...Kya likha hai ..Kya gaya hai...Rooh nikal kar jaban pe pesh kar di hai....Alas Vivek!😢

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