नहीं निगाह में मंज़िल, तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर, तो आरज़ू ही सही
(जुस्तजू = तलाश, खोज), (विसाल = मिलन), (मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)
न तन में ख़ून फ़राहम, न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही
(फ़राहम = संग्रहीत, इकठ्ठा), (अश्क़ = आँसू), (वाज़िब = मुनासिब, उचित, ठीक)
किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही
(बज़्म = महफ़िल), (हा-ओ-हू = दुःख और शून्य/ सुनसान)
गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही
(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा)
दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही
(दयार-ए-ग़ैर = अजनबी का घर), (महरम = अंतरंग मित्र, सुपरिचित, वह जिसके साथ बहुत घनिष्टता हो)
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नहीं विसाल मयस्सर, तो आरज़ू ही सही
(जुस्तजू = तलाश, खोज), (विसाल = मिलन), (मयस्सर = प्राप्त, उपलब्ध)
न तन में ख़ून फ़राहम, न अश्क़ आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही
(फ़राहम = संग्रहीत, इकठ्ठा), (अश्क़ = आँसू), (वाज़िब = मुनासिब, उचित, ठीक)
किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही
(बज़्म = महफ़िल), (हा-ओ-हू = दुःख और शून्य/ सुनसान)
गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही
(वादा-ए-फ़र्दा = आने वाले कल का वादा)
दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्र-ए-वतन अपने रू-ब-रू ही सही
(दयार-ए-ग़ैर = अजनबी का घर), (महरम = अंतरंग मित्र, सुपरिचित, वह जिसके साथ बहुत घनिष्टता हो)
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
आबिदा परवीन/ Abida Parveen
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