Thursday, October 16, 2014

आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे

[(सहन = आँगन), (पस-ऐ-दीवार = दीवार के पीछे)]

ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे

मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे

(साया-ए-दीवार = दीवार की परछाई)

तीरगी छोड़ गये दिन में उजालों के ख़ुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.

(तीरगी = अन्धकार), (ख़ुतूत = लकीरें, रेखाएँ)

देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे

(दरो-बाम = दरवाज़ा और छत), (हमसाये = पड़ोस)

वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे

क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे

[(दीदा-ए-तर = आंसू भरी आँखें), (संग = पत्थर)]

हाथ आया नहीं कुछ रात की दलदल के सिवा
हाय किस मोड़ पे ख़्वाबों के परस्तार गिरे

(परस्तार = पूजनेवाला, उपासक, भक्त)

हम से टकरा गयी खुद बढ के अँधेरे की चटान
हम सम्भल कर जो बहुत चलते थे नाचार गिरे

(नाचार = बेबस, असहाय, मजबूर)

देखते क्यों हो "शिकेब" इतनी बुलन्दी की तरफ
इतना सर भी न उठाओ कि ये दस्तार गिरे

(दस्तार = पगड़ी)

-शिकेब जलाली

No comments:

Post a Comment