Monday, December 1, 2014

सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए

सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़याल-ओ-ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए

(ज़ौक़-ए-सफ़र = यात्रा आनंद)

मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए

बस एक ख़ौफ़ में होती है हर सहर मेरी
निशान-ए-ख़्वाब कहीं आँख पर न रह जाए

(सहर = सुबह)

ये बेहिसी तो मिरी ज़िद थी मेरे अज्ज़ा से
कि मुझ में अपने तआक़ुब का डर न रह जाए

(बेहिसी = बेहोशी), (अज्ज़ा = टुकड़े, खंड), (तआक़ुब = पीछा करना)

हवा-ए-शाम तिरा रक़्स नागुज़ीर सही
ये मेरी ख़ाक तिरे जिस्म पर न रह जाए

(रक़्स = नृत्य), (नागुज़ीर = परम आवश्यक, अनिवार्य)

उसी की शक्ल लिया चाहती है ख़ाक मिरी
सो शहर-ए-जाँ में कोई कूज़ा-गर न रह जाए

(कूज़ा-गर = मिट्टी के बर्तन बनाने वाला)

गुज़र गया हो अगर क़ाफ़िला तो देख आओ
पस-ए-ग़ुबार किसी की नज़र न रह जाए

(पस-ए-ग़ुबार = धूल के पीछे)

मैं एक और खड़ा हूँ हिसार-ए-दुनिया के
वो जिस की ज़िद में खड़ा हूँ उधर न रह जाए

(हिसार-ए-दुनिया = दुनिया का परकोटा, fence of the world)

-अभिषेक शुक्ला

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