Thursday, May 21, 2015

जिस को भी देखो तिरे दर का पता पूछता है

जिस को भी देखो तिरे दर का पता पूछता है
क़तरा क़तरे से समुंदर का पता पूछता है

ढूँढता रहता हूँ आईने में अक़्सर ख़ुद को
मेरा बाहर मिरे अंदर का पता पूछता है

ख़त्म होते ही नहीं संग किसी दिन उसके
रोज़ वो एक नए सर का पता पूछता है

(संग = पत्थर)

ढूँढ़ते रहते हैं सब लोग लकीरों में जिसे
वो मुकद्दर भी सिकंदर का पता पूछता है

मुस्कुराते हुए मैं बात बदल देता हूँ
जब कोई मुझसे मिरे घर का पता पूछता है

दर-ओ-दीवार हैं ये मेरे ग़ज़ल के मिसरे
क्या सुखन-वर से सुखन-वर का पता पूछता है

-राजेश रेड्डी

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