Sunday, November 15, 2015

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ

थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ

मैंने सिर्फ उसूलों के बारे में सोचा भर था
कितनी मुश्किल से मैं अपनी जान बचा पाया हूँ

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ

मुझमें शायद थोड़ा सा आकाश कहीं पर होगा
मैं जो घर के खिड़की रोशनदान बचा पाया हूँ

इसकी क़ीमत क्या समझेंगे ये सब दुनिया वाले
अपने भीतर मैं जो इक इंसान बचा पाया हूँ

खुशबू के अहसास सभी रंगों ने छीन लिए हैं
जैसे-तैसे फूलों की मुस्कान बचा पाया हूँ

-अशोक रावत

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