Friday, January 8, 2016

इस दुनियादारी का कितना भारी मोल चुकाते हैं

इस दुनियादारी का कितना भारी मोल चुकाते हैं
जब तक घर भरता है अपना हम खाली हो जाते हैं

सोच समझ कर खर्च रहे हैं मुस्कानें इस दौर के लोग
घर में रहते हैं चुप, कोई आया तो मुस्काते हैं

अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में
दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं

आने को दोनों आते हैं इस जीवन के आँगन में
दुःख अरसे तक बैठे रह्ते, सुख जल्दी उठ जाते हैं

एक हिसाब हुआ करता है लोगों के मुस्काने का
जितना जिससे मतलब निकले उतना ही मुस्काते  हैं

-हस्तीमल 'हस्ती'

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