Saturday, January 23, 2016

याद

दश्त-ए-तन्हाई में, ऐ जान-ए-जहां, लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साये,
तेरे होंठों के सराब,
दश्त-ऐ-तन्हाई में,
दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक़ तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

(दश्त-ए-तन्हाई = एकांत का जंगल), (लरज़ाँ = काँपता हुआ, थरथराता हुआ)
(सराब = मृगतृष्णा), (ख़स-ओ-ख़ाक़ = सूखी घास और धूल), (समन = चमेली का फूल)

उठ रही है कहीं क़ुर्बत से
तेरी सांस की आंच
अपनी ख़ुश्बू में सुलगती हुई
मद्धम मद्धम
दूर उफ़क़ पार चमकती हुई
क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

(क़ुर्बत = सामिप्य, नज़दीकीपन), (उफ़क़ = क्षितिज), (शबनम = ओस)

इस क़दर प्यार से ऐ जान-ए-जहां रक्खा है
दिल के रुख़सार पे
इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है
गरचे है अभी सुबह-ए-फ़िराक
ढल गया हिज्र का दिन

आ भी गयी वस्ल कि रात

(रुख़सार = कपोल, गाल), (गरचे = यद्यपि), (सुबह-ए-फ़िराक = जुदाई की सुबह), (हिज्र = जुदाई, बिछोह), (वस्ल = मिलन)

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Meesha Shafi

Iqbal Bano


Tina Sani

No comments:

Post a Comment