हर इक दीवार में अब दर बनाना चाहता हूँ
ख़ुदा जाने मैं कैसा घर बनाना चाहता हूँ
(दर = दरवाज़ा)
ज़मीं पर एक मिट्टी का मकां बनता नहीं है
मगर हर दिल में अपना घर बनाना चाहता हूँ
नज़र के सामने जो है उसे सब देखते हैं
मैं पसमंज़र का हर मंज़र बनाना चाहता हूँ
धनक रंगों से भी बनती नहीं तस्वीर उसकी
मैं कैसे शख़्स का पैकर बनाना चाहता हूँ
(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख)
मेरे ख़्वाबों में है दुनिया की जो तस्वीर 'आलम '
नहीं बनती मगर अक्सर बनाना चाहता हूँ
- आलम खुर्शीद
ख़ुदा जाने मैं कैसा घर बनाना चाहता हूँ
(दर = दरवाज़ा)
ज़मीं पर एक मिट्टी का मकां बनता नहीं है
मगर हर दिल में अपना घर बनाना चाहता हूँ
नज़र के सामने जो है उसे सब देखते हैं
मैं पसमंज़र का हर मंज़र बनाना चाहता हूँ
धनक रंगों से भी बनती नहीं तस्वीर उसकी
मैं कैसे शख़्स का पैकर बनाना चाहता हूँ
(पैकर = देह, शरीर, आकृति, मुख)
मेरे ख़्वाबों में है दुनिया की जो तस्वीर 'आलम '
नहीं बनती मगर अक्सर बनाना चाहता हूँ
- आलम खुर्शीद
No comments:
Post a Comment