Wednesday, February 24, 2016

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे

क्या सेह्र तेरे आरिज़-ओ-लब के नहीं रहे
अब रंग ही वो शेर-ओ-अदब के नहीं रहे

(सेह्र = जादू), (आरिज़-ओ-लब = गाल और होंट)

बाक़ी नहीं है हिज्र के नग़मों में वो कसक
वो ज़मज़मे भी वस्ल की शब के नहीं रहे

(हिज्र = जुदाई, वियोग), (ज़मज़मे = गीत), (वस्ल = मिलन), (शब = रात)

वहशत में कोई ख़ाक उड़ाये भी क्यूँ भला
जब मसअले ही तर्क-ओ-तलब के नहीं रहे

(तर्क-ओ-तलब = त्याग और माँग/ इच्छा)

ऐश-ओ-तरब की शर्त पे ज़िंदा हैं राबिते
रिश्ते कहीं भी दर्द-ओ-तअब के नहीं रहे

(ऐश-ओ-तरब = भोगविलास और आनंद), (राबिते = मेल-जोल, सम्बन्ध), (दर्द-ओ-तअब = दर्द और तकलीफ़)

ताबीर किस को ढूँढने आई है अब यहाँ
आँखों के सारे ख़्वाब तो कब के नहीं रहे

(ताबीर = स्वप्नकाल बताना, स्वप्न का फल)

ऐ शहरे-बदहवास ! मैं तन्हा नहीं उदास
अब चैन और क़रार तो सब के नहीं रहे

मेरी ज़बां तराश के 'आलम' वो खुश है यूँ
इम्कान् जैसे शोर-ओ-शग़ब के नहीं रहे

(इम्कान् = सम्भावना, सामर्थ्य), (शोर-ओ-शग़ब = कोलाहल, शोरगुल)

- आलम खुर्शीद

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