Tuesday, July 5, 2016

ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या

ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या
ये ग़लत है तो फिर सही भी क्या

सच कहूँ तो हजार तकलीफ़ें
झूठ बोलूं तो आदमी भी क्या

बाँट लेती हैं मुश्किलें अपनी
हो न ऐसा तो दोस्ती भी क्या

चंद दाने, उड़ान मीलों की
हम परिंदों की ज़िंदगी भी क्या

रंग वो क्या है जो उतर जाए
जो चली जाए वो ख़ुशी भी क्या

-हस्तीमल 'हस्ती'

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