Tuesday, October 18, 2016

धूप उठाता हूँ के अब सर पे कोई बार नहीं

धूप उठाता हूँ के अब सर पे कोई बार नहीं
बीच दीवार है और साया-ए-दीवार नहीं

(बार = बोझ, भार)

शहर की गश्ती में हैं सुबह से सारे मंसूर
अब तो मंसूर वही है जो सर-ए-दार नहीं

(मंसूर = विजेता, विजयी, एक सूफी संत जिन्होंने अनलहक़ (मैं ख़ुदा हूँ) कहा था और इस अपराध में उनकी गरदन काटी गई थी), (सर-ए-दार = सूली फाँसी पर)

 मत सुनो मुझसे जो आज़ार उठाने होंगे
अब के आज़ार ये फैला है के आज़ार नहीं

(आज़ार = दुःख, कष्ट, रोग)

सोचता हूँ के भला उम्र का हासिल क्या था
उम्र भर सांस लिए और कोई अंबार नहीं

जिन दुकानों ने लगाये थे निगह के बाज़ार
उन दुकानों का ये रोना है के बाज़ार नहीं

अब वो हालत है के थक कर मैं ख़ुदा हो जाऊँ
कोई दिलदार नहीं, कोई दिलाज़ार नहीं

(दिलदार = प्यारा, प्रेमपात्र), (दिलाज़ार = सताने वाला, कष्ट देने वाला, दिल दुखाने वाला)

मुझ से तुम काम न लो, काम में लाओ मुझको
कोई तो शहर में ऐसा है के बेकार नहीं

याद आशोब का आलम तो वो आलम है के अब
याद मस्तों को तेरी याद भी दरकार नहीं

(आशोब = उथल-पुथल, हलचल)

वक़्त को सूद पे दे और न रख कोई हिसाब
अब भला कैसा ज़ियाँ, कोई ख़रीदार नहीं

(ज़ियाँ = हानि, क्षति, घाटा)

-जॉन एलिया

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