Monday, November 7, 2016

ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग जो आएँ तो क्या करें

ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग जो आएँ तो क्या करें
सर दर पे उन के गर न झुकाएँ तो क्या करें

ख़ारों को भी नमी ही की हाजत है जब तो फिर
सहरा-ए-दिल न रो के भिगाएँ तो क्या करें

(हाजत = इच्छा, अभिलाषा, ख़्वाहिश)

अपनी तरफ़ से हमने परस्तिश तो ख़ूब की
इस पर भी वो नज़र से गिराएँ तो क्या करें

(परस्तिश = पूजा, आराधना)

हंस हंस के कर रहे हैं तमन्ना का ख़ून हम
यूँ रंग ज़िन्दगी में न लाएँ तो क्या करें

दम घोटती हैं बारहा तन्हाइयां मेरी
ख़ल्वत इसे न कह के छिपाएँ तो क्या करें

(बारहा = कई बार, अक्सर), (ख़ल्वत = एकांत, तन्हाई)

बन के तबीब आये मेरी ज़िन्दगी में जो
वो हाथ नब्ज़ को न लगाएँ तो क्या करें

 (तबीब = उपचारक, चिकित्सक)

नाज़-ओ-नियाज़ क्या, नहीं होता कलाम तक
हम ज़ार ज़ार रो भी न पाएँ तो क्या करें

(नाज़-ओ-नियाज़ = प्रेमी-प्रेमिका की आतंरिक चेष्ठाएँ, हाव-भाव, शोख़ियाँ)

-स्मृति रॉय

Zulm-o-sitam se tang jo aayeN to kya kareN
Sar dar pe unke gar na jhukayeN to kya kareN

KharoN ko bhi nami ki hi haajat hai jab to phir
Sahara-e-dil na ro ke bhigayeN to kya kareN

Apni taraf se hamne parstish to khoob ki
Is par bhi wo nazar se girayeN to kya kareN

Hans hans ke kar raheN haiN tamnna ka khoon ham
YuN rang zindgii meiN na layeN to kya kareN

Dam ghotii haiN barhaa tanhaeeyaN meri
Khalwat ise na kah ke chhipayeN to kya kareN

Ban ke tabeeb aaye merii zindgii meiN jo
Wo haath nabz ko na lagayeN to kya kareN

Naaz-o-niyaaz kya, nahiN hota kalaam tak
Ham zaar zaar ro bhi na paayeN to kya kareN

-Smriti Roy 

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