हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे
किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे
(सहरा = रेगिस्तान), (सैराब = भरपूर, भरा हुआ)
उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन, तुझे अल्लाह रक्खे
हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा
कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे
दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है
जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे
(वाबस्ता = सम्बन्धित, सम्बद्ध, बंधा हुआ)
कम नहीं तमअ-ए-इबादत भी तो हिर्स-ए-ज़र से
फ़क़्र तो वो है कि जो दीन न दुनिया रक्खे
(तमअ-ए-इबादत = झूठी प्रार्थना), (हिर्स-ए-ज़र = पैसे का लालच), (फ़क़्र = साधुता, दरवेशी)
हँस न इतना भी फ़क़ीरों के अकेले-पन पर
जा ख़ुदा मेरी तरह तुझ को भी तन्हा रक्खे
ये क़नाअत है, इताअत है, कि चाहत है 'फ़राज़'
हम तो राज़ी हैं वो जिस हाल में जैसा रक्खे
(क़नाअत = सन्तोष), (इताअत = हुक्म मानना, आज्ञापालन)
-अहमद फ़राज़
किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे
(सहरा = रेगिस्तान), (सैराब = भरपूर, भरा हुआ)
उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन, तुझे अल्लाह रक्खे
हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा
कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे
दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है
जो किसी और का होने दे न अपना रक्खे
(वाबस्ता = सम्बन्धित, सम्बद्ध, बंधा हुआ)
कम नहीं तमअ-ए-इबादत भी तो हिर्स-ए-ज़र से
फ़क़्र तो वो है कि जो दीन न दुनिया रक्खे
(तमअ-ए-इबादत = झूठी प्रार्थना), (हिर्स-ए-ज़र = पैसे का लालच), (फ़क़्र = साधुता, दरवेशी)
हँस न इतना भी फ़क़ीरों के अकेले-पन पर
जा ख़ुदा मेरी तरह तुझ को भी तन्हा रक्खे
ये क़नाअत है, इताअत है, कि चाहत है 'फ़राज़'
हम तो राज़ी हैं वो जिस हाल में जैसा रक्खे
(क़नाअत = सन्तोष), (इताअत = हुक्म मानना, आज्ञापालन)
-अहमद फ़राज़
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