वहशत, आह, फ़ुग़ाँँ और गिरया...शोर मचा है नालों का
बस्ती में बाज़ार लगा है चाक गिरेबाँ वालों का
खेल सियानों का है मुहब्बत, इस का छल तुम क्या जानो
क्या बतलाएँ क्या होता है इस में भोले भालों का
चल कर खुद ही देख ले सारे जीते हैं या मरते हैं
जान गई, पर जी अटका है, तेरे ख़स्ता हालों का
तेरे सर के सौदे की तशहीर है सारी बस्ती में
किस पर भेद छुपा है, पगले, उलझे सुलझे
बालों का
लाख उपायों से न टली है बिपता जो कि आनी थी
तदबीर से पलड़ा भारी है, तक़दीर की उलटी चालों का
ख़ार ए बयाबाँ के बोसे से जबकि चारा हो जाए
गुल से मुँह का लगाना कैसा अपने पाँव के छालों का
जितना ज़ोर लगाया उतना उलझा उसकी कुंडली में
पल पल कसता जाए दिल पर हल्क़ा काले बालों का
एक तसव्वुर के पर्दे में, बाबर, माज़ी, फ़र्दा,
हाल
आँखें मूँदे सफ़र किया है जाने कितने सालों का
-बाबर इमाम
No comments:
Post a Comment