Monday, January 21, 2019

जैसे भी इशारात हों, जैसी भी नज़र हो

जैसे भी इशारात हों, जैसी भी नज़र हो
पहली सी मुहब्बत न सही, कुछ तो मगर हो

साग़र हो, सुराही हो, मय-ए-ज़ुद-असर हो
जीना कोई मुश्किल नहीं, सामान अगर हो

(मय-ए-ज़ूद-असर = जल्दी असर करने वाली शराब)

चौखट हो के दहलीज़, दरीचा हो के दर हो
जैसा भी हो, कहने के लिए कोई तो घर हो

हम जिस की तजल्ली के हैं मुश्ताक़ अज़ल से
वो काफ़िर-ए-आफ़ाक़ ख़ुदा जाने किधर हो?

(तजल्ली = प्रकाश, नूर), (मुश्ताक़ = उत्सुक), ((अज़ल = सृष्टि के आरम्भ, अनादिकाल), (काफ़िर-ए-आफ़ाक़ = दुनिया का माशूक़)

हम जान भी दे दें तो कोई देखे न देखे
वो होंट हिला दें तो ज़माने को ख़बर हो

तन्हाई में रह कर भी मैं तनहा नहीं रहता
होता है कोई साथ, सफ़र हो के हज़र हो

(हज़र = घर में रहना, सफ़र का उल्टा)

सब की ये दुआ है कि मैं इस रोग से छूटूँ
मेरी ये दुआ है के दुआ में न असर हो

अब जाने दे, जाने दे मुझे, ऐ शब-ए-हिज्राँ
शब भर तो रुके वोह, जिसे उम्मीद-ए-सहर हो

(शब-ए-हिज्राँ = जुदाई की रात), (उम्मीद-ए-सहर = सुबह होने की उम्मीद)

इस बज़्म-ए-अदीबाँ में भला 'क़ैस' का क्या काम
उस रिन्द-ए-ख़राबात में कोई तो हुनर हो

(बज़्म-ए-आदीबाँ = कलाकारों की महफ़िल), (रिन्द-ए-ख़राबात = मैख़ाने में ही रहने वाला शराबी)

-राजकुमार क़ैस

No comments:

Post a Comment