Friday, February 22, 2019

कोई ख़ंजर ना किसी तलवार से

कोई ख़ंजर ना किसी तलवार से
हल हुईं हैं मुश्किलें बस प्यार से

क्या बताएं हम इलाजे इश्क़ अब
पूछते हैं वो दवा बीमार से

वो मज़े के दिन वो बचपन अब कहाँ
दिन गुज़रते थे किसी त्यौहार से

ढूंढते दैरो हरम में जो ख़ुदा
अब तलक महरूम हैं दीदार से

(दैरो हरम = मंदिर मस्जिद), (महरूम = वंचित)

क्या मरासिम हैं मेरे तन्हाई से
पूछ लो मेरे दरो दीवार से

(मरासिम = मेल-जोल, प्रेम-व्यवहार, संबंध)

पोछते कब अश्क़ अपनी आँख के
कब मिली फ़ुर्सत हमें घर बार से

है अगर तेरी दुआ में कुछ कमी
फिर सदा आती नहीं उस पार से

(सदा = आवाज़)

किसको फ़ुर्सत कौन पूछे हाल अब
लड़ रहे हैं सब यहाँ किरदार से

मशवरा है आईना मत देखना
कर लिया सौदा अगर दस्तार से

(दस्तार = पगड़ी)

- विकास वाहिद // ०४ -०२ -२०१९

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