Monday, April 20, 2020

अहम की ओढ़ कर चादर

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर

अहम अहमों से टकराते
बिखरते चूर होते हैं
मगर फिर भी अहम के हाथ
हम मजबूर होते हैं
अहम का एक टुकड़ा भी
नया आकार लेता है
ये शोणित बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर .....

विनय शीलो में भी अपनी
विनय का अहम होता है
वो अन्तिम साँस तक अपनी
वहम का अहम ढोता है
अहम ने देश बाँटॆ हैं
अहम फ़िरकों का पोषक है
अहम इंसान के ज़ज़्बात का भी
मौन शोषक है
अहम पर ठेस लग जाये
कसक रहती है जीवन भर
अहम की ओढ़ करे चादर ...

- अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'




No comments:

Post a Comment